Thursday, March 4, 2010

होरी आई - गई

श्री सत्य नारायण शर्मा 'कमल' जी मूल रूप से कानपुर के निवासी हैं| अखिल भारतीय सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद अपने पुत्र पुत्रियों के बीच कानपुर, हैदराबाद ,इलाहाबाद आदि में प्रवास करते रहते हैं| अत्यंत समर्थ रचनाकार 'कमल' जी की यह कविता कानपुरिया बोली में लिखी गयी है| इसका आनंद लें और अपने विचारों से अवगत कराएँ|
                       होरी आई सपरि गुजरि गइ
             अइस बयार चली फगुनाई 
             शीत समेटि लपेटि के धरि गई  
खोवा सक्कर तेल भाव सुनि
सोनू की माँ सोच म पडि गई
जतन जुगाड़ लगाए कुछ तो
जैसे तैसे होरी मनि  गई
             पर गरीब गुरबा के घर तौ
             पूरनिमा अंधियारी करि गई
जिनके स्वजन बने परदेसी
उनकी पीर अलग दुखदायी
गुझिया मठरी बनी मिठाई
सुधि करि करि रोवै भोजाई
                 भीगी पलकें सुमिरैं परिजन
                 अपलक सारी रैन निकरि गई
बदली फिजां मौन हुइ गये
ढोल नगाड़े औ मिरदंग
हास्य-व्यंग गुदगुदी खुइ गई
रंगारंग बने हुड्दंग
                   भाँग खाय जो नाची बहुरिया
                   देखि के लच्छन सासु बीफरि गई
टेसू फूल पलास बिसरिगै
स्याह-रसायन रंग सचरिगै     
रसिया गावैं लाग मर्सिया
भाँग छोडि कै ठर्रा पी गै   
                     चाय मिठाई फीकी परि  गई
                      मंहगाई हरजाइ पसरि गई
रात सिरानी  नींद हेरानी
सूनी सेज न आए पिया
सोचि सोचि कै कोसि रही
सौतियाडाह लगि जरै हिया
                     होरी कि आगि तो ठंडी परि गई 
                     विरह अगिन मा गोरी जरि गई
                            होरी आई फुर्र गुजरि गई  !
   कमल  

Tuesday, October 13, 2009

गंगा -जमुना - प्रतिभा सक्सेना.

प्रतिभा सक्सेना जी की इस रचना पर भोजपुरी का प्रभाव है लेकिन मूल स्वर अवधी का है|
अतः इसका भौगालिक क्षेत्र-निर्धारण कठिन है लेकिन इसमे लोक तत्त्व प्रबल है| 
इस गीत में इस लोकमान्यता को आधार बनाया गया है कि जब गंगा उत्तरवाहिनी
(पश्चिमवाहिनी भी)होती है तो उसमे स्नान दान आदि का महत्त्व बढ़ जाता है| 
- अमित

नैहर की सुधि अइसी उमडल हिया माँ ब्याकुल उठे हिलकोर ,
आगिल क मारग बिसरली रे गंगा घूम गइलीं मइके की ओर !
*
बेटी को खींचे रे मइया का आँचल टेरे बबा का दुलार ,
पावन भइल थल ,पुन्यन भरी भइली उत्तरवाहिनी धार* !
जहि के अँगनवा में बचपन बिताइन बाँहन के पलना में झूलीं 
तरसे नयन,जुग बीते न देखिन, जाइत बहत चुप अकेली !
*
केतन नगर , वन ,पथ पार कइले मिली ना बिछुडी सहिलियाँ,
मारग अजाना बही जात गंगिया अकेली न भइया- बहिनियाँ !
कौनों दिसा बहि गइली मोरी जमुना,कैसी उठी रे मरोर !
मइया हिरानी रे ,बाबा हिराने जाइल परइ कौने ठौर !
*
ब्रज रज रचे तन, श्याम मन धरे मगन , देखिल जमुन प्रवाह,
दूरइ ते देखिल जुडाय गइली गंगा,अंतर माँ उमडिल उछाह !
जनम की बिछुडी बहिनी मिलन भेल , झलझल नयन लीने मूँद,
पलकन से बहबह झर- झर गिरे, रुक पाये न अँसुआ के बूंद !
*
व्याकुल ,हिलोरत दुहू जन लिपटीं उमडिल परेम परवाह,
दूनों ही बहिनी भुजा भर भेंटिल,तीरथ भइल परयाग !
दोनो के अँसुआ बहल गंगा-जमुना,इक दूजे में मिल हिरानी ,
धारा में धारा समाइल रे अइसे ,फिर ना कबहुँ बिलगानी !
*
लहरें- लहर सामर संग उज्जल गंगा-जमुन का मिलाप
अइसी मिलीं कबहूँ ना बिछुडलीं सीतल भइल तन ताप !
हिय माँ उमड नेह ,कंपित भइल देह गंगा भईं गंभीर 
चल री सखी,मोर बहिनी चलिय जहँ सागर होइल सरीर !
* प्रतिभा सक्सेना.

 



Thursday, October 8, 2009

हिन्दी प जौन घात है अंगरेजियै मा है। (अवधी ) - अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

 यह रचना लखनऊ के आसपास तथा कुछ हद तक राय बरेली सलवन आदि में बोली जाती है| हिंदी और उसकी स्थिति पर इधर काफी चर्चा हो रही थी तो एक हास्य-व्यंग्य रचना बन गई| आप सब के सम्मुख है| बोली के प्रति मैं भी बहुत आश्वस्त नहीं हूँ| जहाँ त्रुटियां लगें इंगित करियेगा और सुझाव दे सकें तो और भी अच्छा होगा| आदरणीया शकुन्तला जी के सुझाव पर कुछ संशोधन के साथ यह गीत पुनः प्रस्तुत है।

-अमित 

हिन्दी क सगल बात तौ अंगरेजियै मा है।
हिन्दी प ज‍उन घात है  अंगरेजियै मा है।

उइ कहिन कि आयौ जरूर आज साँझि मां
हिन्दी क कउनो गीत भी ल‍इ आयौ साथि मां
"बस खा़स-ख़ास लोग हैं कम भीड़-भाड़ है
कुछ पत्र-पुष्प का भी साथ में जुगाड़ है"
एतना बताइ न्यौता उइ दइके सटक लिहिन
देखिन त लिखा ओहिमा सब अंगरेजियै मा है।

लड़िक‍उनू क जब नाम लिखावै गयेन सहर
पूँछिन कि "घर में बोलते हैं आप किस तरह"
हम कहा कि यू का सवाल करिन है हजूर
मनई कि नाईं ’बोलते हैं’ अ‍उर किस तरह
उइ कहिन कि चच्चा त मदरसा में फूटि ल्यौ
काहे से इहाँ काम सब अंगरेजियै मा है।

घर-घर में जब संचरि गवा कम्पूटरी बोखार
सोचिन कि चलो राम सीखि लेइ इहू का
टीवी अ रेडियो त चलाये  हजार हन
कई लेई क‍उनो मास्टर दुई रोज किहू का
सुनि कै हमारि बात उहाँ क‍उसलर कहिस
चाचा इहाँ कमांड सब अंगरेजियै मा है।


हिन्दी क सगल बात तौ अंगरेजियै मा है।
हिन्दी प ज‍उन घात है  अंगरेजियै मा है।


अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, October 5, 2009

संबध (मैथिली गीत) - श्यामल सुमन

परिचयः
नाम :  श्यामल किशोर झा  लेखकीय नाम :  श्यामल सुमन 
जन्म तिथि:  10.01.1960   जन्म स्थान :  चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार
शिक्षा :  स्नातक, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र एवं अँग्रेज़ी
तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा
वर्तमान पेशा :  प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर
साहित्यिक कार्यक्षेत्र :  छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के कई पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित।स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालन।अंतरजाल पत्रिका "अनुभूति, साहित्य कुञ्ज, कृत्या, हिन्दी नेस्ट, युग मानस, साहित्य शिल्पी, हेलो मिथिला, मिथिला आ मैथिल आदि में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।
गीत ग़ज़ल संकलन प्रेस में प्रकाशनार्थ
प्राक्कथन:  सुमन जी के अनुसार यह दरभंगा, मधुबनी, सहरसा आदि क्षेत्रों में बोली जाने वाली मैथिली है। वैसे साहित्यिक जगत में यही मैथिली प्रयुक्त होती है। बोलचाल में कुछ आंचलिक अंतर हो सकते हैं। पाठकों की सुविधा के लिये खड़ीबोली में भी इस गीत का अर्थ सुमन जी द्वारा दिया गया है प्रत्येक पद के अंत में। - अमित

संबंध
साँच जिनगी मे बीतल जे गाबैत छी।
वेदना अछि हृदय मे सुनावैत छी।।
साँच जिनगी----------

(इस जिन्दगी घटित घटनाओं को गीत में गा रहा हूँ और उससे उपजे अपने हृदय की वेदना सुना रहा हूँ।)
कहू माता के आँचर मे सुख जे भेटल।
चढ़ैत कोरा जेना सब हमर दुख मेटल।
आय ममता उपेक्षित कियै राति दिन।
सोचि कोठी मे मुँह कय नुकाबैत छी।।
साँच जिनगी----------

(माँ के आँचल में हमने कितना सुख पाया? उनके गोद (कोरा) में चढ़ते ही मानो संसार के सारे दुख मिट गए, लेकिन वही माता आज घर घर में उपेक्षित क्यों है? यही सोचकर कवि अपना मुँह कोठी {ग्रामीण इलाकों में प्राचीन काल से अन्न आदि रखने केलिए मिट्टी का बना बड़ा पात्र} में छुपाना चाहता है)
खूब बचपन मे खेललहुँ बहिन भाय संग।
प्रेम सँ भीज जाय छल हरएक अंग अंग।
कोना संबंध शोणित के टूटल एखन?
एक दोसर के शोणित बहाबैत छी।।
साँच जिनगी----------

(अपने बचपन में बहन भाई संग खेले गए खेल और बिताए क्षण को कवि भावुक होकर याद करता है और कहता है कि उन दिनों भाई बहन के आपस के प्रेम से शरीर का हर अंग भींग जाता था अर्थात् प्रेममय हो जाता था लेकिन वही खून के रिश्ते आज खूनी रिश्ते में कैसे बदल गए? भाई ही भाई का खून (शोणित) कैसे बहा रहा है?)
दूर अप्पन कियै अछि पड़ोसी लगीच।
कटत जिनगी सुमन के बगीचे के बीच।
बात घर घर के छी इ सोचब ध्यान सँ।
स्वयं दर्पण स्वयं केँ देखाबैत छी।।
साँच जिनगी----------

जिनसे खून का संबंध था, आज वो भावात्मक रूप से दूर हो गये और दूसरे जो पड़ोसी हैं उनसे अक्सर अपनों के वनिस्बत नजदीकी अधिक बढ़ जाती है। कवि अपने तखल्लुस सुमन का प्रयोग करते हुए कहता है कि सुमन की जिन्दगी तो आखिर बगीचे में ही कटेगी। ये किसी एक घर की घटना नहीं है बल्कि सब घरों में यही हो रहा है और कवि अपने ही दर्पण में ही अपना चेहरा देखकर इस सामाजिक विघटन का गीत गाकर लोगों में संदेश भेजने की कोशिश करता है)

Sunday, October 4, 2009

भय बिनु होय न प्रीति - पारुल पु्खराज

 पारुल जी की यह रचना कानपुर-उन्नाव-लखनऊ आदि में प्रचिलित ब्रजमिश्रित अवधी में हैं। इसकी एक विशिष्ट पहचान होने के कारण इसे कनपुरिया भी कहते हैं।

भय बिन होय न प्रीत
के भईया  भय बिन होये न प्रीत,
हमका कौन्हों दे बताये
प्रीत के कैसन रीत ई भईया
भय बिन होये न प्रीत?

लैइके  लाठी सरि पै बैठो
धमकावो- दुत्कारौ-पीटौ
दाँत पीसि कै खूब असीसौ
नेह लगाय के गल्ती किन्हौ
पुनि पुनि दुहिराओ  इब भईया
प्रीत के ऐसन रीत
भय बिन होय न प्रीत--

हमरा  तुमसे प्रेम अकिंचन
राधा कीनहिन स्याम से जैसन
अब तुम अहिका कर्ज उतारौ
इधर-उधर ना आउर निहारौ
गाँठ बान्धि कै धयि लयो ध्यान
प्रीत के ऐसन रीत
भय बिन होये न प्रीत--

हिरनिन ऐसन तुम्हरे नैन
कोयल जैसन तुम्हरे बैन
बतियाओ तो फूल झरैं
मुस्काओ तो कंवल खिलैं
होवे तुमका कितानेहू पीर
या सब भयी  हमरी  जागीर
प्रीत के ऐसन रीत
भय बिन होये न प्रीत …


पारुल पुखराज

Saturday, October 3, 2009

नचारी - प्रतिभा सक्सेना

प्रतिभा सक्सेना जी की यह नचारी कन्नौज क्षेत्र में प्रचिलित ब्रजभाषा में है। कृपया इसका रसास्वादन करें और टिप्पणी दें।
** 
संकर को पोटि के पियाय दियो घोर विष
असुरन को छल से छकाय दई वारुणी 
मिलि-बाँटि देवन सों आप सुधा पान कियो 
मणि सै लीन्हीं अरु लक्ष्मि मन-भावनी 
*
तेरो ही प्रताप सारे खारे समुन्दर भे 
तेरी इहै बान तू सबै का नचावत है 
आप छीर -सागर में आँख मूँद सोय जात
लच्छिमी से आपुने चरन पलुटावत है 
*
नारद सो भक्त ता की छाती पे मूँग दरी 
सभा माँझ बानर को रूप दे पठाय के 
उचक-उचक रह्यो मोहिनी बरैगी मोंहिं
बापुरो खिस्यायो तोसों सबै विधि हार के 
*
अब सो बिगार मेरो कर्यो ना हे रमापति ,
तोरी सारी पोल नाहिं खोलिहौं बखान के 
ढरे रहो मो पे नहीं चुप्पै रहौंगी नहिं
खरी-खरी बात बरनौंगी जानि-जानि कै 
*
कोऊ उपाओ मेरे काज सुलटाय देओ 
स्वारथ न मेरो ,सामर्थ तेरो ही दियौ 
ऐसो न होय तो से वीनती है मोर 
कहूँ धरो रह जाय मेरो सारो करो-धरो!
*
तोरा विसवास तो अब तब ही करौंगी 
जब देख लिहौं के तू मेरे संग ठाड़ो आय के 
चोर रे कन्हैया,चाल खेलत जनम बीत्यो 
करौंगी सिकायत उहाँ जसुमति से जाय के!
*प्रतिभा सक्सेना

Friday, October 2, 2009

बतकही में स्वागत!

                      हिन्दी खड़ी बोली के साथ-साथ अन्य सहयोगी बोलियों यथा अवधी, भोजपुरी, मगही, बुन्देली,बघेली आदि के लिये के साझा मंच देने के उद्देश्य से इस चिट्ठे को प्रारम्भ किया जा रहा है। मेरा मानना है कि इससे हिन्दी की बोलियों, उपबोलियों के बीच संवाद की स्थिति उत्पन्न होगी तथा वे एक दूसरे के समीप आयेंगी और एक दूसरे से संस्कार ग्रहण करके समृद्ध होंगी। खड़ी बोली से इतर बोलियों के रचनाकारों से अपेक्षा होगी कि वे अत्यन्त देशज शब्दों के हिन्दी समानर्थक शब्द भी पाद टिप्पणी के रूप में दे दिया करें जिससे सभी सदस्य रचनाओं या वार्ता का आनन्द ले सकें। आप सभी से अनुरोध है कि अपनी रचनायें, विचार, वार्ता इस इस मंच पर प्रकाशन हेतु इस पते पर भेजें- amitabh.ald@gmail.com। 
                    रचना या वार्ता हेतु विषय वस्तु का कोई विशेष प्रतिबन्ध नहीं है। वयस्क एवं अन्यवर्जित विषयों को छोड़ कर किसी भी विषय पर वार्ता की जा सकती है। राजनीति (इसके निम्न अर्थों में) से भी यथासंभव दूरी रखने का प्रयत्न होगा अतः ऐसी वार्ता या रचना को रोका जा सकता है जिससे व्यर्थ विवाद उत्पन्न होने की सम्भावना हो। क्योंकि हमारा उद्देश्य भाषा का विकास है विवादों का नहीं। अन्त में पुनः एक बार आपका सबका स्वागत है इस मंच पर।
सादर 
अमिताभ